(अधिक जानकारी के लिए पढ़ें Dwaidh Shasan in Bangal बंगाल में द्वैध शासन)
धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया के खर्चे बढ़ने लगे तो उसने इन खर्चों की पूर्ति के लिए भू राजस्व दरों में वृद्धि कर दी। रॉबर्ट क्लाइव के बाद के अधिकारियों द्वारा अधिक राजस्व प्राप्त करने के लिए भू राजस्व पद्धतियों में परिवर्तन किया गया।
अंग्रेजों द्वारा मुख्य रूप से भू राजस्व की तीन पद्धतियां अपनाई गई
(1) जमीदारी (2) रैयतवाड़ी (3) महलवाड़ी
इसके अतिरिक्त 1772 में वारेन हेस्टिंग द्वारा वह राजस्व के लिए इजारेदारी प्रथा बंगाल में आरंभ की गई, पर यह अधिक समय तक नहीं चली।
इस इजारेदारी प्रथा में जमीन की बोली लगाई जाती और सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को भूमि 5 वर्ष के लिए ठेके पर दी जाती। यह ठेकेदार किसानों से लगान वसूल करता और अंग्रेजों को देता। परन्तु 1777 के बाद यह ठेका 1 वर्ष के लिए कर दिया गया।
इजारेदारी में भू राजस्व में प्रतिवर्ष परिवर्तित होने वाली ठेकेदारी से यह अनिश्चितता बनी रहती की अगले वर्ष कितना राजस्व वसूल होगा। चूँकि इस व्यवस्था में प्रतिवर्ष ठेकेदार परिवर्तित होते थे। अतः उनका उद्देश्य केवल अधिकतम लगान वसूल करना होता था। उनका जमीन के उपजाऊपन या सुधार में कोई रूचि नहीं थी। इस कारण जमीन का उपजाऊपन गिरता रहा और किसान कंगाल होते गए और प्रताड़ित होते रहे।
जमीदारी या स्थाई बंदोबस्ती
स्थाई बंदोबस्ती की व्यवस्था लार्ड कार्नवालिस के समय में आरंभ हुई। इजारेदारी प्रथा की कमियों को दूर करने के उद्देश्य से स्थाई बंदोबस्ती की व्यवस्था की गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत 1790 में जमींदारों के साथ 10 वर्ष के लिए समझौता किया गया। जिसे 22 मार्च 1793 में स्थाई कर दिया। यह व्यवस्था बंगाल सहित उड़ीसा उत्तर प्रदेश के बनारस तथा उत्तरी कर्नाटक में लागू की गई थी
ब्रिटिश भारत का लगभग 19% भाग इसके अंदर सम्मिलित किया गया । स्थाई बंदोबस्ती द्वारा जमींदारों को भूमिका स्थाई मालिक बना दिया गया। जमींदार, ब्रिटिश सरकार को एक निश्चित लगन प्रतिवर्ष देते थे। यदि वे निश्चित लगान नहीं दे पाते तो उनकी जमींदारी किसी अन्य को बेच दी जाती। जमींदार को किसान से वसूल किए गए भू राजस्व का 10/11 भाग कंपनी को देना था तथा 1/11 भाग स्वयं रखना था। अगर वह अधिक रकम वसूल कर पाता तो वह जमींदार ही रख सकता था।
रैयतवाड़ी व्यवस्था (Ryotwari System)
रैयतवाड़ी व्यवस्था, मद्रास के तत्कालीन गवर्नर (1820-27) टॉमस मनरो द्वारा 1820 में प्रारंभ की गयी। (रैयत यानि किसान ) इस व्यवस्था को मद्रास, बम्बई एवं असम के कुछ भागों लागू किया गया। बंबई के तत्कालीन गवर्नर (1819-27) एल्फिन्सटन द्वारा इस व्यवस्था को, बम्बई में लागू करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस व्यवस्था के अंतर्गत 51 प्रतिशत भूमि आयी।
रैयतवाड़ी व्यवस्था में सरकार ने रैयतों अर्थात किसानों से सीधा सम्पर्क किया। इसके अंतर्गत किसान सीधे या व्यक्तिगत रूप से स्वयं सरकार को लगान अदा करने के लिये उत्तरदायी थे। भू-राजस्व का निर्धारण उपज की मात्रा पर न करके भूमि के क्षेत्रफल के आधार पर किया जाता था ।
स्थायी बंदोबस्ती की भांति, इस व्यवस्था में भी भूमि पर किसान का स्वामित्व तब तक बना रहता, जब तक कि किसान समय पर लगान की राशि सरकार को देता रहे अन्यथा उसकी भूमि किसी अन्य को बेच दी जाती।
महालबाड़ी पद्धति (Mahalwari System)
महालबाड़ी व्यवस्था लार्ड हेस्टिंग्स के काल में आरंभ किया गया। यह व्यवस्था मध्य प्रांत, यू.पी. (आगरा) एवं पंजाब में लागू की गयी। इस व्यवस्था के अंतर्गत 30 प्रतिशत भूमि आयी।
इस व्यवस्था में भू-राजस्व देने की जिम्मेदारी, जमींदार या किसान के बजाय पूरे गाँव की होती थी। गाँव के मुखिया या प्रधान को गाँव के किसान लगान देते, फिर अंग्रेज सरकार मुखिया से पूरे गांव या महाल का लगान वसूल करती।
एक प्रकार से लगान की जिम्मेदारी गाँव के प्रधान को दे दी गई। साथ में ये अधिकार भी दे दिया गया की वे लगान न देने वाले किसान को जमीन से बेदखल भी कर सकते हैं।
महालवाड़ी व्यवस्था के तहत लगान का निर्धारण महाल या संपूर्ण गाँव के ऊपज के आधार पर किया जाता था।
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