सन 1931 में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया। जिसमें महात्मा गांधी ने भाग। इस द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में अल्पसंख्यकों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग जोरशोर से उठाई गई। जिसके परिणाम स्वरूप 16 अगस्त 1932 को रैम्जे मैकडॉनल्ड द्वारा सांप्रदायिक अधिनिर्णय की घोषणा की गई। यह संप्रदायिक अधिनिर्णय उपनिवेशवादी अंग्रेज शासन की 'फूट डालो और राज करो' नीति का एक प्रत्यक्ष प्रमाण था।
इस निर्णय के अंतर्गत, ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने ब्रिटिश भारत में उच्च जातियों, निम्न जातियों, मुस्लिमों, बौद्धों, सिखों, भारतीय ईसाईयों, आंग्ल-भारतियों ,यूरोपियों और दलितों के लिए प्रथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था प्रदान करने की घोषणा की।
जिस समय यह घोषणा की गई उस समय महात्मा गांधी पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में थे। उन्होंने इसका विरोध किया। कम्युनल अवार्ड की घोषणा होते ही पहले तो उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसे रोकने का प्रयास किया। परंतु जब उन्होंने देखा यह बदला नहीं जा रहा है तो उन्होंने 20 सितंबर 1932 से आमरण अनशन की घोषणा कर दी। गांधी जी को डर था कि इस निर्णय द्वारा हिंदू समाज बिखर जाएगा।
गांधी जी को इस प्रकार आमरण अनशन करते देख एम सी रजा, मदन मोहन मालवीय तथा बी आर अंबेडकर ने उनको मानाने का प्रयास किया और उन्हीं के प्रयासों से एक समझौता हुआ। जिसे पूना समझौता या पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है।
यह पूना पैक्ट समझौता भीमराव अंबेडकर एवं महात्मा गांधी के बीच पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में 24 सितंबर 1932 को हुआ। अंग्रेज सरकार ने समझौतों को संप्रदाय अधीन निर्णय में संशोधन मानकर उसे अनुमति प्रदान कर दी।
इस समझौते के परिणाम स्वरुप, दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचक मंडल को समाप्त कर दिया गया। दलितों के स्थान हिन्दुओं के अंतर्गत ही सुरक्षित रखे गए।
परन्तु दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 147 और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18% कर दीं गयीं।
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